चराग़ों ने हमारे साए लम्बे कर दिए इतने
सवेरे तक कहीं पहुँचेंगे अब अपने बराबर हम
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अलावा इक चुभन के क्या है ख़ुद से राब्ता मेरा
मुझे चखते ही खो बैठा वो जन्नत अपने ख़्वाबों की
ख़ुद में उतरूँगी तो मैं भी लापता हो जाऊँगी
न जाने कब से बराबर मिरी तलाश में है
ज़र्द चेहरों की किताबें भी हैं कितनी मक़्बूल
मेरे हालात ने यूँ कर दिया पत्थर मुझ को
हम ऐसे सूरमा हैं लड़ के जब हालात से पलटे
मर के ख़ुद में दफ़्न हो जाऊँगी मैं भी एक दिन
तिश्नगी मेरी मुसल्लम है मगर जाने क्यूँ
ज़मीन मोम की होती है मेरे क़दमों में
हम मता-ए-दिल-ओ-जाँ ले के भला क्या जाएँ
फ़साना-दर-फ़साना फिर रही है ज़िंदगी जब से