मैं किस ज़बान में उस को कहाँ तलाश करूँ
जो मेरी गूँज का लफ़्ज़ों से तर्जुमा कर दे
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वो इक नज़र से मुझे बे-असास कर देगा
किसी जनम में जो मेरा निशाँ मिला था उसे
कभी गोकुल कभी राधा कभी मोहन बन के
मैं उस के सामने उर्यां लगूँगी दुनिया को
थकन से चूर हूँ लेकिन रवाँ-दवाँ हूँ मैं
मेरा भी हर अंग था बहरा उस का जिस्म भी गूँगा था
हम कोई नादान नहीं कि बच्चों की सी बात करें
मैं फूट फूट के रोई मगर मिरे अंदर
मेरे अंदर एक दस्तक सी कहीं होती रही
वो मिरा साया मिरे पीछे लगा कर खो गया
चमन पे बस न चला वर्ना ये चमन वाले
मैं अपने जिस्म में रहती हूँ इस तकल्लुफ़ से