उस ने चाहा था कि छुप जाए वो अपने अंदर
उस की क़िस्मत कि किसी और का वो घर निकला
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तिश्नगी मेरी मुसल्लम है मगर जाने क्यूँ
हमारी बेबसी शहरों की दीवारों पे चिपकी है
हम ने सब को मुफ़्लिस पा के तोड़ दिया दिल का कश्कोल
मेरे हालात ने यूँ कर दिया पत्थर मुझ को
मेरी ख़ल्वत में जहाँ गर्द जमी पाई गई
मेरी तस्वीर बनाने को जो हाथ उठता है
लहू से उठ के घटाओं के दिल बरसते हैं
ज़िंदगी भर मैं खुली छत पे खड़ी भीगा की
मैं शाख़-ए-सब्ज़ हूँ मुझ को उतार काग़ज़ पर
गए मौसम में मैं ने क्यूँ न काटी फ़स्ल ख़्वाबों की
मेरे अंदर कोई तकता रहा रस्ता उस का
किस क़दर कम-असास हैं कुछ लोग