पत्तों को छोड़ देता है अक्सर ख़िज़ाँ के वक़्त
ख़ुद-ग़र्ज़ी ही कुछ ऐसी यहाँ हर शजर में है
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ये रहबर आज भी कितने पुराने लगते हैं
अजब ख़ुलूस अजब सादगी से करता है
भली हो या कि बुरी हर नज़र समझता है
किसी दरख़्त से सीखो सलीक़ा जीने का
इक थकन क़ुव्वत-ए-इज़हार में आ जाती है
निगाह कोई तो तूफ़ाँ में मेहरबान सी है
सफ़र हो शाह का या क़ाफ़िला फ़क़ीरों का