किसी दरख़्त से सीखो सलीक़ा जीने का
जो धूप छाँव से रिश्ता बनाए रहता है
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भली हो या कि बुरी हर नज़र समझता है
पत्तों को छोड़ देता है अक्सर ख़िज़ाँ के वक़्त
इक थकन क़ुव्वत-ए-इज़हार में आ जाती है
सफ़र हो शाह का या क़ाफ़िला फ़क़ीरों का
अजब ख़ुलूस अजब सादगी से करता है
ये रहबर आज भी कितने पुराने लगते हैं
निगाह कोई तो तूफ़ाँ में मेहरबान सी है