पल Poetry (page 17)

हम-कलामी में दर-ओ-दीवार से

बहराम तारिक़

एक नज़्म लिखना मुश्किल है

अज़रा अब्बास

कमाल ये है कि दुनिया को कुछ पता न लगे

अज़ीज़ुर्रहमान शहीद फ़तेहपुरी

हयूला

अज़ीज़ तमन्नाई

रफ़्तगाँ

अज़ीज़ क़ैसी

ग़रीब शहर

अज़ीज़ क़ैसी

दाद-गर

अज़ीज़ क़ैसी

अज़ल-अबद

अज़ीज़ क़ैसी

ये किस मक़ाम पे लाया गया ख़ुदाया मुझे

अज़ीज़ नबील

सुब्ह और शाम के सब रंग हटाए हुए हैं

अज़ीज़ नबील

मैं नींद के ऐवान में हैरान था कल शब

अज़ीज़ नबील

ज़िंदगी भर मैं खुली छत पे खड़ी भीगा की

अज़ीज़ बानो दाराब वफ़ा

कभी गोकुल कभी राधा कभी मोहन बन के

अज़ीज़ बानो दाराब वफ़ा

दिल कुछ देर मचलता है फिर यादों में यूँ खो जाता है

अज़हर नक़वी

दरीचे सो गए शब जागती है

अज़हर नैयर

वो माहताब अभी बाम पर नहीं आया

अज़हर इक़बाल

वो मुझ से मेरा तआ'रुफ़ कराने आया था

अज़हर इनायती

मयस्सर हो जो लम्हा देखने को

अज़हर इनायती

अटूट अंग

अज़हर गौरी

मैं जिस लम्हे को ज़िंदा कर रहा हूँ मुद्दतों से

अज़हर अदीब

वो शब के साए में फ़स्ल-ए-नशात काटते हैं

अज़हर अदीब

सुब्ह कैसी है वहाँ शाम की रंगत क्या है

अज़हर अदीब

दर टूटने लगे कभी दीवार गिर पड़े

अज़हर अदीब

मिरी कहानी तिरी कहानी से मुख़्तलिफ़ है

अज़हर अब्बास

अजीब लगता है यूँही बिछा हुआ बिस्तर

अज़हर अब्बास

कर्ब-ए-हिज्राँ ज़ि-बस है क्या कीजे

अज़ीम कुरेशी

रौशनी फैली तो सब का रंग काला हो गया

आज़ाद गुलाटी

लम्हा लम्हा इक नई सई-ए-बक़ा करती हुई

आज़ाद गुलाटी

अपनी सारी काविशों को राएगाँ मैं ने किया

आज़ाद गुलाटी

निहत्ते आदमी पे बढ़ के ख़ंजर तान लेती है

औरंगज़ेब

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