अटूट अंग

मिरा सर तुम अपने ही ज़ानू पे रख कर

मुझे पूछती हो!

कि में कौन हूँ

क्या हूँ, कैसे हूँ?

सारे सवालों को मुट्ठी में रख कर

ज़रा मेरी इक बात सन लो

सुनो! ये तुम्हारे बदन का ख़ुमार-आश्ना कैफ़... नर्म ओ मुसलसल

मुझे लज़्ज़तों के उमुक़ में लिए जा रहा है

मैं पल पल कभी

लहज़ा लहज़ा कभी

धीरे धीरे कभी

लम्हा लम्हा कभी

एक दरिया के फैलाव में डूबता जा रहा हूँ

शराबोर तूफ़ान में तुंद लहरों की सूरत

नशीले समय

एक आहंग के साथ हचकोले खाता हुआ

मैं किसी सोच की रौ में बहता चला जा रहा हूँ

मिरा दिल, मिरी जाँ:

दोनों ही मौसूम हैं, उस तमव्वुज से

जो मेरी नस नस में पैहम मचलता हुआ

ख़ून के ज़ेर-ओ-बम की कहानी सुनाता हुआ

बह रहा है

कि जिस के हर एक लम्स की

लज़्ज़तों, ज़ाइक़ों में

तुम्हारा कोई ख़्वाब है

जैसे महताब है

तुम तो मेरे बदन का कोई पारा-ए-ख़ाक हो

तुम कोई ग़ैर हो?

मेरी हम-ज़ाद!

हम कश्ती-ए-ज़ीस्त के बादबाँ की तनाबें हैं दो

एक तुम, एक मैं

जिन का मोहताज है बादबान-ए-नफ़स

ये ज़मीं, ये ज़माँ

मेरे ही अहद की दास्ताँ

हम से आबाद दाएम बिसात-ए-जहाँ

अपने आँगन की फूलों-भरी कियारियाँ

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