पहलू Poetry (page 4)
उस के होंटों पर सुर महका करते हैं
स्वप्निल तिवारी
धूप के भीतर छुप कर निकली
स्वप्निल तिवारी
पदमनी
सुरूर जहानाबादी
मौसम-ए-गुल कुंज-ए-गुलशन निकहत-ए-गेसू न हो
सुलतान रशक
निज़ाम-ए-शम्स-ओ-क़मर कितने दस्त-ए-ख़ाक में हैं
सुलैमान अरीब
भेस क्या क्या न ज़माने में बनाए हम ने
सुलैमान अरीब
ज़ौक़ पे शौक़ पे मिट जाने को तय्यार उठा
सुलैमान अहमद मानी
सब तमाशे हो चुके अब घर चलो
सुहैल अहमद ज़ैदी
जब शाम बढ़ी रात का चाक़ू निकल आया
सुहैल अहमद ज़ैदी
वो थे पहलू में और थी चाँदनी रात
सूफ़ी तबस्सुम
जब भी दो आँसू निकल कर रह गए
सूफ़ी तबस्सुम
रग-ए-जाँ में समा जाती हो जानाँ
सुबहान असद
इस का ग़म है कि मुझे वहम हुआ है शायद
सुबहान असद
तमन्नाएँ ठिकाना चाहती हैं
सोनरूपा विशाल
कहाँ तलक तिरी यादों से तख़लिया कर लें
सिरज़ अालम ज़ख़मी
बे-ख़याली में कहा था कि शनासाई नहीं
सिदरा सहर इमरान
अपनी आँखों को अक़ीदत से लगा के रख ली
सिदरा सहर इमरान
रुका तो राज़ खुला कब से अपने घर में था
शुजाअत अली राही
मेरा दिल हाथों में लो तो क्या तुम्हारा जाएगा
शुजा ख़ावर
ज़ख़्म-ए-दिल अब फूल बन कर खिल गया
शोला हस्पानवी
जाने क्या बात है मानूस बहुत लगता है
शोहरत बुख़ारी
याद है अब तक मुझे अहद-ए-जवानी याद है
शिव रतन लाल बर्क़ पूंछवी
बातों में ढूँडते हैं वो पहलू मलाल का
शेर सिंह नाज़ देहलवी
बातों में ढूँडते हैं वो पहलू मलाल का
शेर सिंह नाज़ देहलवी
न खींचो आशिक़-तिश्ना-जिगर के तीर पहलू से
ज़ौक़
किसी बेकस को ऐ बेदाद गर मारा तो क्या मारा
ज़ौक़
बर्क़ मेरा आशियाँ कब का जला कर ले गई
ज़ौक़
बाग़-ए-आलम में जहाँ नख़्ल-ए-हिना लगता है
ज़ौक़
कहूँ मैं क्या कि क्या दर्द-ए-निहाँ है
मुस्तफ़ा ख़ाँ शेफ़्ता
दरवाज़ा कोई घर से निकलने के लिए दे
शीन काफ़ निज़ाम
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