लंबा Poetry (page 3)

मौसम-ए-गुल तिरे इनआ'म अभी बाक़ी हैं

सिराजुद्दीन ज़फ़र

और खुल जा कि मआ'रिफ़ की गुज़रगाहों में

सिराजुद्दीन ज़फ़र

कभी जो आह के मिसरे कूँ याद करता हूँ

सिराज औरंगाबादी

यार को बे-हिजाब देखा हूँ

सिराज औरंगाबादी

तुझ ज़ुल्फ़ की शिकन है मानिंद-ए-दाम गोया

सिराज औरंगाबादी

तुझ पर फ़िदा हैं सारे हुस्न-ओ-जमाल वाले

सिराज औरंगाबादी

तिरी निगाह की अनियाँ जिगर में सलियाँ हैं

सिराज औरंगाबादी

सर्व-ए-गुलशन पर सुख़न उस क़द का बाला हो गया

सिराज औरंगाबादी

नयन की पुतली में ऐ सिरीजन तिरा मुबारक मक़ाम दिस्ता

सिराज औरंगाबादी

क्यूँ तिरे गेसू कूँ गेसू बोलनाँ

सिराज औरंगाबादी

जिस दिन सीं मैं यार बूझता हूँ

सिराज औरंगाबादी

हमारी आँखों की पुतलियों में तिरा मुबारक मक़ाम हैगा

सिराज औरंगाबादी

ग़म की जब सोज़िश सीं महरम होवेगा

सिराज औरंगाबादी

फ़स्ल-ए-गुल का ग़म दिल-ए-नाशाद पर बाक़ी रहा

सिराज औरंगाबादी

दिल में जब आ के इश्क़ ने तेरे महल किया

सिराज औरंगाबादी

चराग़-ए-मह सीं रौशन-तर है हुस्न-ए-बे-मिसाल उस का

सिराज औरंगाबादी

अग़्यार छोड़ मुझ सें अगर यार होवेगा

सिराज औरंगाबादी

क्या हमसरी की हम से तमन्ना करे कोई

सिरज़ अालम ज़ख़मी

दश्त को जा तो रहे हो सोच लो कैसा लगेगा

शुजा ख़ावर

ख़ुशी में ग़म मिला लेते हैं थोड़ा

शोएब निज़ाम

दरों को चुनता हूँ दीवार से निकलता हूँ

शोएब निज़ाम

अदल-ए-फ़ारूक़ी का एक नमूना

शिबली नोमानी

हैं दहन ग़ुंचों के वा क्या जाने क्या कहने को हैं

ज़ौक़

बाग़-ए-आलम में जहाँ नख़्ल-ए-हिना लगता है

ज़ौक़

हम ज़िंदगी-शनास थे सब से जुदा रहे

शहपर रसूल

गोर में याद-ए-क़द-ए-यार ने सोने न दिया

मुस्तफ़ा ख़ाँ शेफ़्ता

हम-ज़ाद

शाज़ तमकनत

यही सफ़र की तमन्ना यही थकन की पुकार

शाज़ तमकनत

बैत-ए-अंकबूत

शम्सुर रहमान फ़ारूक़ी

जहाँ तलक भी ये सहरा दिखाई देता है

शकेब जलाली

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