क़ैस Poetry (page 5)

ग़ुरूर-ज़ब्त से आह-ओ-फ़ुग़ाँ तक बात आ पहुँची

हरी चंद अख़्तर

यूँ तो हसीन अक्सर होते हैं शान वाले

हफ़ीज़ जौनपुरी

सुन के मेरे इश्क़ की रूदाद को

हफ़ीज़ जौनपुरी

दोस्ती का चलन रहा ही नहीं

हफ़ीज़ जालंधरी

अपना हर उज़्व चश्म-ए-बीना है

गोया फ़क़ीर मोहम्मद

अपने अंजाम से डरता हूँ मैं

गोपाल मित्तल

हर अदावत की इब्तिदा है इश्क़

ग़ुलाम मौला क़लक़

सदा ब-सहरा

ग़ालिब अहमद

क़यामत है कि सुन लैला का दश्त-ए-क़ैस में आना

ग़ालिब

न हुई गर मिरे मरने से तसल्ली न सही

ग़ालिब

जुज़ क़ैस और कोई न आया ब-रू-ए-कार

ग़ालिब

हुज़ूर-ए-शाह में अहल-ए-सुख़न की आज़माइश है

ग़ालिब

तुम्हें क्यूँकर बताएँ ज़िंदगी को क्या समझते हैं

फ़िराक़ गोरखपुरी

कुछ इशारे थे जिन्हें दुनिया समझ बैठे थे हम

फ़िराक़ गोरखपुरी

तूफ़ाँ से बच के दामन-ए-साहिल में रह गया

फ़िगार उन्नावी

मैं अपने दिल की तरह आइना बना हुआ हूँ

फ़रताश सय्यद

ऐ कातिब-ए-तक़दीर ये तक़दीर में लिख दे

फ़रहत नदीम हुमायूँ

लगे हुए हैं ज़माने के इंतिज़ाम में हम

फ़रहत एहसास

महमिल है मतलूब न लैला माँगता है

एजाज़ गुल

लैला मजनूँ की शादी

दिलावर फ़िगार

इश्क़ का परचा

दिलावर फ़िगार

ऐ इश्क़ तू ने वाक़िफ़-ए-मंज़िल बना दिया

दिल शाहजहाँपुरी

मिन्नतों से भी न वो हूर-शमाइल आया

दाग़ देहलवी

मिलाते हो उसी को ख़ाक में जो दिल से मिलता है

दाग़ देहलवी

क्या तर्ज़-ए-कलाम हो गई है

दाग़ देहलवी

बुतान-ए-माहवश उजड़ी हुई मंज़िल में रहते हैं

दाग़ देहलवी

बाक़ी जहाँ में क़ैस न फ़रहाद रह गया

दाग़ देहलवी

इक दिखावा रह गया बस दिल से वो चाहत गई

बिलाल अहमद

काबे का शौक़ है न सनम-ख़ाना चाहिए

बेदम शाह वारसी

बताए देती है बे-पूछे राज़ सब दिल के

बेदम शाह वारसी

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