रास्ता Poetry (page 2)

हयात वक़्फ़-ए-ग़म-ए-रोज़गार क्यूँ करते

ज़ुहूर नज़र

शरीफ़-ज़ादा

ज़ुबैर रिज़वी

अंजाम क़िस्सा-गो का

ज़ुबैर रिज़वी

ज़िंदगी ऐसे घरों से तो खंडर अच्छे थे

ज़ुबैर रिज़वी

वो बाद-ए-गर्म था बाद-ए-सबा के होते हुए

ज़ुबैर रिज़वी

तमाम रास्ता फूलों भरा तुम्हारा था

ज़ुबैर रिज़वी

फिर दिल को रोज़ ओ शब की वही ईद चाहिए

ज़ुबैर रिज़वी

कुछ दिनों इस शहर में हम लोग आवारा फिरें

ज़ुबैर रिज़वी

हम दोनों में कोई न अपने क़ौल-ओ-क़सम का सच्चा था

ज़ुबैर रिज़वी

हम बाद-ए-सबा ले के जब घर से निकलते थे

ज़ुबैर रिज़वी

कलियाँ चटक रही हैं बहारों की गोद में

ज़ोहरा नसीम

गो उन्हें राह-ए-इंहिराफ़ नहीं

ज़ियाउद्दीन अहमद शकेब

दर्द की शाख़ पे इक ताज़ा समर आ गया है

ज़िया ज़मीर

अब तो आते हैं सभी दिल को दुखाने वाले

ज़िया ज़मीर

तन्हा

ज़िया जालंधरी

हरजाई

ज़िया जालंधरी

अधूरी

ज़िया जालंधरी

तिरी निगह से इसे भी गुमाँ हुआ कि मैं हूँ

ज़िया जालंधरी

शादाब शाख़-ए-दर्द की हर पोर क्यूँ नहीं

ज़िया जालंधरी

कैसे दुख कितनी चाह से देखा

ज़िया जालंधरी

जब उन्ही को न सुना पाए ग़म-ए-जाँ अपना

ज़िया जालंधरी

इक ख़्वाब था आँखों में जो अब अश्क-ए-सहर है

ज़िया जालंधरी

छेड़ी भी जो रस्म-ओ-राह की बात

ज़िया जालंधरी

आँखों में निहाँ है जो मुनाजात वो तुम हो

ज़िया जालंधरी

तू ने नज़रों को बचा कर इस तरह देखा मुझे

ज़िया फ़तेहाबादी

तारों को गर्दिशें मिलीं ज़र्रों को ताबिशें

ज़ेहरा निगाह

एक तेरा ग़म जिस को राह-ए-मो'तबर जानें

ज़ेहरा निगाह

क़िस्सा गुल-बादशाह का

ज़ेहरा निगाह

एक तिलिस्मी खेल

ज़ेहरा निगाह

एक पुरानी कहानी

ज़ेहरा निगाह

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