शायद Poetry (page 12)

गुफ़्तुगू तीर सी लगी दिल में

सलमान अख़्तर

ज़ुल्म है तख़्त ताज सन्नाटा

सलमान अख़्तर

मुझे जब भी कभी तेरी कमी महसूस होती है

सलीम शुजाअ अंसारी

आज शायद ज़िंदगी का फ़ल्सफ़ा समझा हूँ मैं

सलीम शुजाअ अंसारी

मय-ख़ाना-ए-हस्ती में साक़ी हम दोनों ही मुजरिम हैं शायद

सालिक लखनवी

वहम ओ ख़िरद के मारे हैं शायद सब लोग

सलीम शहज़ाद

नहीं है कोई दूसरा मंज़र चारों ओर

सलीम शहज़ाद

उस को मिल कर देख शायद वो तिरा आईना हो

सलीम शाहिद

घर के दरवाज़े खुले हों चोर का खटका न हो

सलीम शाहिद

वुसअत है वही तंगी-अफ़्लाक वही है

सलीम कौसर

कैसे हंगामा-ए-फ़ुर्सत में मिले हैं तुझ से

सलीम कौसर

कहीं तुम अपनी क़िस्मत का लिखा तब्दील कर लेते

सलीम कौसर

ख़ुशबू सा कोई दिन तो सितारा सी कोई शाम

सलीम फ़िगार

कहीं आँखें कहीं बाज़ू कहीं से सर निकल आए

सलीम फ़िगार

एक तो दुनिया का कारोबार है

सलीम फ़राज़

पीतल का साँप

सलाम मछली शहरी

अवाम

सलाम मछली शहरी

अंदेशा

सलाम मछली शहरी

आज फिर ये कह रहा हूँ

सलाम मछली शहरी

माह-ए-नौ पर्दा-ए-सहाब में है

सख़ी लख़नवी

मी-यौमिल-हिसाब

साजिदा ज़ैदी

नहीं है याद कि वो याद कब नहीं आया

साइम जी

तुम हुस्न की ख़ुद इक दुनिया हो शायद ये तुम्हें मालूम नहीं

साहिर लुधियानवी

मिरे गीत

साहिर लुधियानवी

चेहरे पे ख़ुशी छा जाती है आँखों में सुरूर आ जाता है

साहिर लुधियानवी

अक़ाएद वहम हैं मज़हब ख़याल-ए-ख़ाम है साक़ी

साहिर लुधियानवी

बे-निशाँ साहिर निशाँ में आ के शायद बन गया

साहिर देहल्वी

इक बर्फ़ का दरिया अंदर था

साहिबा शहरयार

आ जा अँधेरी रातें तन्हा बिता चुका हूँ

सहबा अख़्तर

ये मरना जीना भी शायद मजबूरी की दो लहरें हैं

सहर अंसारी

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