ये मरना जीना भी शायद मजबूरी की दो लहरें हैं
कुछ सोच के मरना चाहा था कुछ सोच के जीना चाहा है
Rahat Indori
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अजब तरह से मैं सर्फ़-ए-मलाल होने लगा
इक ख़्वाब के मौहूम निशाँ ढूँड रहा था
अलाव
मिरे लहू को मिरी ख़ाक-ए-नागुज़ीर को देख
ज़र्द सूरज
सदा अपनी रविश अहल-ए-ज़माना याद रखते हैं
हम अहल-ए-ज़र्फ़ कि ग़म-ख़ाना-ए-हुनर में रहे
अब यही रंज-ए-बे-दिली मुझ को मिटाए या बनाए
हम ने आदाब-ए-ग़म का पास किया
इक आस का धुँदला साया है इक पास का तपता सहरा है
न दोस्ती से रहे और न दुश्मनी से रहे
सज़ा बग़ैर अदालत से मैं नहीं आया