मिरे लहू को मिरी ख़ाक-ए-नागुज़ीर को देख
यूँही सलीक़ा-ए-अर्ज़-ए-हुनर नहीं आया
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कभी कभी
मन के मंदिर में है उदासी क्यूँ
न अब वो शिद्दत-ए-आवारगी न वहशत-ए-दिल
महफ़िल-आराई हमारी नहीं इफ़रात का नाम
तंग आते भी नहीं कशमकश-ए-दहर से लोग
शिकवा-ए-तलख़ी-ए-हालात बजा है लेकिन
क्या किसी लम्हा-ए-रफ़्ता ने सताया है तुझे
विसाल-ओ-हिज्र से वाबस्ता तोहमतें भी गईं
शायद कि वो वाक़िफ़ नहीं आदाब-ए-सफ़र से
रास्तों में इक नगर आबाद है
पैमाना-ए-हाल हो गए हम