मौत के बाद ज़ीस्त की बहस में मुब्तला थे लोग
हम तो 'सहर' गुज़र गए तोहमत-ए-ज़िंदगी उठाए
Rahat Indori
Anwar Masood
Javed Akhtar
Mohsin Naqvi
Gulzar
Mir Taqi Mir
Jaun Eliya
Faiz Ahmad Faiz
Ahmad Faraz
Wasi Shah
Habib Jalib
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जाने क्यूँ रंग-ए-बग़ावत नहीं छुपने पाता
अलाव
तंग आते भी नहीं कशमकश-ए-दहर से लोग
किसी भी ज़ख़्म का दिल पर असर न था कोई
इक आस का धुँदला साया है इक पास का तपता सहरा है
महसूस क्यूँ न हो मुझे बेगानगी बहुत
दोराहा
सदा अपनी रविश अहल-ए-ज़माना याद रखते हैं
क्या किसी लम्हा-ए-रफ़्ता ने सताया है तुझे
अजब तरह से मैं सर्फ़-ए-मलाल होने लगा
इक ख़्वाब के मौहूम निशाँ ढूँड रहा था