महफ़िल-आराई हमारी नहीं इफ़रात का नाम
कोई हो या कि न हो आप तो आए हुए हैं
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पैमाना-ए-हाल हो गए हम
ज़र्द सूरज
ये मरना जीना भी शायद मजबूरी की दो लहरें हैं
अलाव
हाथ आ सका है सिलसिला-ए-जिस्म-ओ-जाँ कहाँ
इक शरार-ए-गिरफ़्ता-रंग हूँ मैं
मौत के बाद ज़ीस्त की बहस में मुब्तला थे लोग
हम अहल-ए-ज़र्फ़ कि ग़म-ख़ाना-ए-हुनर में रहे
तारीकियों का हिसाब
इक ख़्वाब के मौहूम निशाँ ढूँड रहा था
कभी कभी
मन के मंदिर में है उदासी क्यूँ