जाने क्यूँ रंग-ए-बग़ावत नहीं छुपने पाता
हम तो ख़ामोश भी हैं सर भी झुकाए हुए हैं
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तंग आते भी नहीं कशमकश-ए-दहर से लोग
हम अहल-ए-ज़र्फ़ कि ग़म-ख़ाना-ए-हुनर में रहे
कैसी कैसी महफ़िलें सूनी हुईं
इक ख़्वाब के मौहूम निशाँ ढूँड रहा था
अब यही रंज-ए-बे-दिली मुझ को मिटाए या बनाए
इक आस का धुँदला साया है इक पास का तपता सहरा है
जिसे गुज़ार गए हम बड़े हुनर के साथ
अपने ख़ूँ से जो हम इक शम्अ जलाए हुए हैं
ये मरना जीना भी शायद मजबूरी की दो लहरें हैं
तिरी आरज़ू से भी क्यूँ नहीं ग़म-ए-ज़िंदगी में कोई कमी
हाथ आ सका है सिलसिला-ए-जिस्म-ओ-जाँ कहाँ