अपने ख़ूँ से जो हम इक शम्अ जलाए हुए हैं
शब-परस्तों पे क़यामत भी तो ढाए हुए हैं
जाने क्यूँ रंग-ए-बग़ावत नहीं छुपने पाता
हम तो ख़ामोश भी हैं सर भी झुकाए हुए हैं
महफ़िल-आराई हमारी नहीं इफ़रात का नाम
कोई हो या कि न हो आप तो आए हुए हैं
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न अब वो शिद्दत-ए-आवारगी न वहशत-ए-दिल
शिकवा-ए-तलख़ी-ए-हालात बजा है लेकिन
हम को जन्नत की फ़ज़ा से भी ज़ियादा है अज़ीज़
कैसी कैसी महफ़िलें सूनी हुईं
सर-ए-राह
इंतिज़ार
सदा अपनी रविश अहल-ए-ज़माना याद रखते हैं
न किसी से करम की उम्मीद रखें न किसी के सितम का ख़याल करें
कहीं वो चेहरा-ए-ज़ेबा नज़र नहीं आया
हम ने आदाब-ए-ग़म का पास किया
ये मरना जीना भी शायद मजबूरी की दो लहरें हैं
दोराहा