शिकवा-ए-तलख़ी-ए-हालात बजा है लेकिन
इस पे रोता हूँ कि मैं ने भी रुलाया है तुझे
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मन के मंदिर में है उदासी क्यूँ
जिसे गुज़ार गए हम बड़े हुनर के साथ
मिरे लहू को मिरी ख़ाक-ए-नागुज़ीर को देख
अब यही रंज-ए-बे-दिली मुझ को मिटाए या बनाए
क़ाबील का साया
नूह के बा'द
हिसाब-ए-शब
रास्तों में इक नगर आबाद है
महसूस क्यूँ न हो मुझे बेगानगी बहुत
पैमाना-ए-हाल हो गए हम
कहीं वो चेहरा-ए-ज़ेबा नज़र नहीं आया
सदा अपनी रविश अहल-ए-ज़माना याद रखते हैं