शायद कि वो वाक़िफ़ नहीं आदाब-ए-सफ़र से
पानी में जो क़दमों के निशाँ ढूँड रहा था
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न किसी से करम की उम्मीद रखें न किसी के सितम का ख़याल करें
ये मरना जीना भी शायद मजबूरी की दो लहरें हैं
मन के मंदिर में है उदासी क्यूँ
अजब तरह से मैं सर्फ़-ए-मलाल होने लगा
कैसी कैसी महफ़िलें सूनी हुईं
इक आस का धुँदला साया है इक पास का तपता सहरा है
मिरे लहू को मिरी ख़ाक-ए-नागुज़ीर को देख
पैमाना-ए-हाल हो गए हम
मौत के बाद ज़ीस्त की बहस में मुब्तला थे लोग
अब यही रंज-ए-बे-दिली मुझ को मिटाए या बनाए
कभी कभी
हवस ओ वफ़ा की सियासतों में भी कामयाब नहीं रहा