सदा अपनी रविश अहल-ए-ज़माना याद रखते हैं
हक़ीक़त भूल जाते हैं फ़साना याद रखते हैं
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ज़र्द सूरज
महफ़िल-आराई हमारी नहीं इफ़रात का नाम
न अब वो शिद्दत-ए-आवारगी न वहशत-ए-दिल
कभी कभी
इंतिज़ार
हम को जन्नत की फ़ज़ा से भी ज़ियादा है अज़ीज़
रास्तों में इक नगर आबाद है
सर-ए-राह
महसूस क्यूँ न हो मुझे बेगानगी बहुत
तिरी आरज़ू से भी क्यूँ नहीं ग़म-ए-ज़िंदगी में कोई कमी
अपने ख़ूँ से जो हम इक शम्अ जलाए हुए हैं