तिरी आरज़ू से भी क्यूँ नहीं ग़म-ए-ज़िंदगी में कोई कमी
ये सवाल वो है कि जिस का अब कोई इक जवाब नहीं रहा
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इंतिज़ार
न किसी से करम की उम्मीद रखें न किसी के सितम का ख़याल करें
पैमाना-ए-हाल हो गए हम
तंग आते भी नहीं कशमकश-ए-दहर से लोग
शिकवा-ए-तलख़ी-ए-हालात बजा है लेकिन
नूह के बा'द
हम ने आदाब-ए-ग़म का पास किया
इक शरार-ए-गिरफ़्ता-रंग हूँ मैं
ये मरना जीना भी शायद मजबूरी की दो लहरें हैं
हम को जन्नत की फ़ज़ा से भी ज़ियादा है अज़ीज़
क़ाबील का साया
अब यही रंज-ए-बे-दिली मुझ को मिटाए या बनाए