जिसे गुज़ार गए हम बड़े हुनर के साथ
वो ज़िंदगी थी हमारी हुनर न था कोई
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सज़ा बग़ैर अदालत से मैं नहीं आया
तिरी आरज़ू से भी क्यूँ नहीं ग़म-ए-ज़िंदगी में कोई कमी
क़ाबील का साया
रास्तों में इक नगर आबाद है
नूह के बा'द
हम ने आदाब-ए-ग़म का पास किया
मन के मंदिर में है उदासी क्यूँ
इक ख़्वाब के मौहूम निशाँ ढूँड रहा था
न अब वो शिद्दत-ए-आवारगी न वहशत-ए-दिल
सदा अपनी रविश अहल-ए-ज़माना याद रखते हैं
हम अहल-ए-ज़र्फ़ कि ग़म-ख़ाना-ए-हुनर में रहे