सितम Poetry (page 8)

नीमचा यार ने जिस वक़्त बग़ल में मारा

ज़ौक़

नहीं सबात बुलंदी-ए-इज्ज़-ओ-शाँ के लिए

ज़ौक़

क्या ग़रज़ लाख ख़ुदाई में हों दौलत वाले

ज़ौक़

कहाँ तलक कहूँ साक़ी कि ला शराब तो दे

ज़ौक़

जो कुछ कि है दुनिया में वो इंसाँ के लिए है

ज़ौक़

अज़ीज़ो इस को न घड़ियाल की सदा समझो

ज़ौक़

ऐ 'ज़ौक़' वक़्त नाले के रख ले जिगर पे हाथ

ज़ौक़

किस लिए लुत्फ़ की बातें हैं फिर

मुस्तफ़ा ख़ाँ शेफ़्ता

रोज़ ख़ूँ होते हैं दो-चार तिरे कूचे में

मुस्तफ़ा ख़ाँ शेफ़्ता

मैं वस्ल में भी 'शेफ़्ता' हसरत-तलब रहा

मुस्तफ़ा ख़ाँ शेफ़्ता

मह्व हूँ मैं जो उस सितमगर का

मुस्तफ़ा ख़ाँ शेफ़्ता

कब निगह उस की इश्वा-बार नहीं

मुस्तफ़ा ख़ाँ शेफ़्ता

जब रक़ीबों का सितम याद आया

मुस्तफ़ा ख़ाँ शेफ़्ता

इश्क़ की मेरे जो शोहरत हो गई

मुस्तफ़ा ख़ाँ शेफ़्ता

देखूँ तो कहाँ तक वो तलत्तुफ़ नहीं करता

मुस्तफ़ा ख़ाँ शेफ़्ता

दस्त-ए-अदू से शब जो वो साग़र लिया किए

मुस्तफ़ा ख़ाँ शेफ़्ता

असर-ए-आह-ए-दिल-ए-ज़ार की अफ़्वाहें हैं

मुस्तफ़ा ख़ाँ शेफ़्ता

बे-नंग-ओ-नाम

शाज़ तमकनत

शिकोह-ए-ज़ात से दुश्मन का लश्कर काँप जाता है

शायान क़ुरैशी

हाथ उठाता हूँ मैं अब दुआ के लिए

शौक़ सालकी

हुई या मुझ से नफ़रत या कुछ इस में किब्र-ओ-नाज़ आया

शौक़ क़िदवाई

फ़रियाद और तुझ को सितमगर कहे बग़ैर

शौक़ क़िदवाई

ज़ाहिरन ये बुत तो हैं नाज़ुक गुल-ए-तर की तरह

शौक़ बहराइची

शैख़ ओ बरहमन दोनों हैं बर-हक़ दोनों का हर काम मुनासिब

शौक़ बहराइची

ख़िलाफ़-ए-हंगामा-ए-तशद्दुद क़दम जो हम ने बढ़ा दिए हैं

शौक़ बहराइची

ख़ौफ़ इक दिल में समाया लरज़ उट्ठा काग़ज़

शौक़ बहराइची

इधर है बाद-ए-सुमूम नालाँ उधर है बर्क़-ए-तपाँ भी आजिज़

शौक़ बहराइची

ऐ हम-सफ़ीर तलख़ी-ए-तर्ज़-ए-बयाँ न छोड़

शौक़ बहराइची

मुझे तो रंज क़बा-ए-हा-ए-तार-तार का है

शाैकत वास्ती

दर से मायूस तिरे तालिब-ए-इकराम चले

शातिर हकीमी

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