रोज़ ख़ूँ होते हैं दो-चार तिरे कूचे में
रोज़ ख़ूँ होते हैं दो-चार तिरे कूचे में
एक हंगामा है ऐ यार तिरे कूचे में
फ़र्श-ए-रह हैं जो दिल-अफ़गार तिरे कूचे में
ख़ाक हो रौनक़-ए-गुलज़ार तिरे कूचे में
सरफ़रोश आते हैं ऐ यार तिरे कूचे में
गर्म है मौत का बाज़ार तिरे कूचे में
शेर बस अब न कहूँगा कि कोई पढ़ता था
अपने हाली मिरे अशआर तिरे कूचे में
न मिला हम को कभी तेरी गली में आराम
न हुआ हम पे जुज़ आज़ार तिरे कूचे में
मलक-उल-मौत के घर का था इरादा अपना
ले गया शौक़-ए-ग़लत-कार तिरे कूचे में
तू है और ग़ैर के घर जल्वा-तराज़ी की हवस
हम हैं और हसरत-ए-दीदार तिरे कूचे में
हम भी वारस्ता-मिज़ाजी के हैं अपनी क़ाइल
ख़ुल्द में रूह तन-ए-ज़ार तिरे कूचे में
क्या तजाहुल से ये कहता है कहाँ रहते हो
तिरे कूचे में सितमगार तिरे कूचे में
'शेफ़्ता' एक न आया तो न आया क्या है
रोज़ आ रहते हैं दो-चार तिरे कूचे में
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