अंदर Poetry (page 22)

ख़त ज़मीं पर न ऐ फ़ुसूँ-गर काट

ग़ुलाम मौला क़लक़

ऐ ख़ार ख़ार-ए-हसरत क्या क्या फ़िगार हैं हम

ग़ुलाम मौला क़लक़

उफ़ुक़ से आग उतर आई है मिरे घर भी

ग़ुलाम हुसैन साजिद

थकन ग़ालिब है दम टूटे हुए हैं

ग़नी एजाज़

है ख़याल-ए-हुस्न में हुस्न-ए-अमल का सा ख़याल

ग़ालिब

अल्लाह रे ज़ौक़-ए-दश्त-नवर्दी कि बाद-ए-मर्ग

ग़ालिब

मिलती है ख़ू-ए-यार से नार इल्तिहाब में

ग़ालिब

धोता हूँ जब मैं पीने को उस सीम-तन के पाँव

ग़ालिब

बज़्म-ए-शाहंशाह में अशआर का दफ़्तर खुला

ग़ालिब

सदाक़तों के दहकते शोलों पे मुद्दतों तक चला किए हम

फ़ुज़ैल जाफ़री

परछाइयाँ

फ़िराक़ गोरखपुरी

लुत्फ़-सामाँ इताब-ए-यार भी है

फ़िराक़ गोरखपुरी

ये सूरज क्यूँ भटकता फिर रहा है

फ़ज़्ल ताबिश

सफ़र

फ़ज़्ल ताबिश

इन आँखों में बिन बोले भी मादर-ज़ाद तक़ाज़ा है

फ़ज़्ल ताबिश

हर इक दरवाज़ा मुझ पर बंद होता

फ़ज़्ल ताबिश

तू है मअ'नी पर्दा-ए-अल्फ़ाज़ से बाहर तो आ

फ़ज़ा इब्न-ए-फ़ैज़ी

सुलगना अंदर अंदर मिस्रा-ए-तर सोचते रहना

फ़ज़ा इब्न-ए-फ़ैज़ी

उस की हर बात ने जादू सा किया था पहले

फ़े सीन एजाज़

उम्र भर एक सी उलझन तो नहीं बन सकते

फ़े सीन एजाज़

कोई आँख चुपके चुपके मुझे यूँ निहारती है

फ़े सीन एजाज़

अच्छी-ख़ासी रुस्वाई का सबब होती है

फ़े सीन एजाज़

क्यूँ मसाफ़त में न आए याद अपना घर मुझे

फ़ौक़ लुधियानवी

हाथ में अपने अभी तक एक साग़र ही तो है

फ़ातिमा वसीया जायसी

आख़िरी लफ़्ज़

फ़ातिमा हसन

जड़ों से सूखता तन्हा शजर है

फ़सीह अकमल

कुश्तगान-ए-ख़ंजर-ए-तस्लीम-रा

फर्रुख यार

दो तहों वाली सरगोशी

फर्रुख यार

जिस्म के अंदर जो सूरज तप रहा है

फ़र्रुख़ जाफ़री

यूँ मुसल्लत तो धुआँ जिस्म के अंदर तक है

फ़र्रुख़ जाफ़री

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