ये सूरज क्यूँ भटकता फिर रहा है
मिरे अंदर उतर जाता तो सोता
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रिश्ता खुजियाया हुआ कुत्ता है
कली कली का बदन फोड़ कर जो निकला है
एक नज़्म
सूरज ऊँचा हो कर मेरे आँगन में भी आया है
जिन ख़्वाबों से नींद उड़ जाए ऐसे ख़्वाब सजाए कौन
हर इक शय ख़ून में डूबी हुई है
रातों के ख़ौफ़ दिन की उदासी ने क्या दिया
मिलों के शहर में घटता हुआ दिन सोचता होगा
इन आँखों में बिन बोले भी मादर-ज़ाद तक़ाज़ा है
रात को ख़्वाब बहुत देखे हैं
सफ़र
ये सन्नाटा बहुत महँगा पड़ेगा