दीपक Poetry (page 23)

वक़ार दे के कभी बे-वक़ार मत करना

गुहर खैराबादी

मैं इक मुसाफ़ि-ए-तन्हा मिरा सफ़र तन्हा

गुहर खैराबादी

चराग़ से कभी तारों से रौशनी माँगे

गुहर खैराबादी

नज़्ज़ारा-ए-रुख़-ए-साक़ी से मुझ को मस्ती है

गोया फ़क़ीर मोहम्मद

सँभल के रहिएगा ग़ुस्से में चल रही है हवा

गोविन्द गुलशन

शे'र कहने का मज़ा है अब तो

गोपाल मित्तल

अपनी तस्वीर के इक रुख़ को निहाँ रखता है

ग़ुलाम मुर्तज़ा राही

सोए हुए जज़्बों को जगाना ही नहीं था

ग़ुलाम मोहम्मद क़ासिर

रात का हर इक मंज़र रंजिशों से बोझल था

ग़ुलाम मोहम्मद क़ासिर

जज़्बों को किया ज़ंजीर तो क्या तारों को किया तस्ख़ीर तो क्या

ग़ुलाम मोहम्मद क़ासिर

बन में वीराँ थी नज़र शहर में दिल रोता है

ग़ुलाम मोहम्मद क़ासिर

अश्क के गिरते ही आँखों में अंधेरा छा गया

ग़ुलाम मौला क़लक़

ये आब-ओ-ताब इसी मरहले पे ख़त्म नहीं

ग़ुलाम हुसैन साजिद

इस अँधेरे में चराग़-ए-ख़्वाब की ख़्वाहिश नहीं

ग़ुलाम हुसैन साजिद

उफ़ुक़ से आग उतर आई है मिरे घर भी

ग़ुलाम हुसैन साजिद

सुब्ह तक जिन से बहुत बेज़ार हो जाता हूँ मैं

ग़ुलाम हुसैन साजिद

नहीं है इस नींद के नगर में अभी किसी को दिमाग़ मेरा

ग़ुलाम हुसैन साजिद

मिरी विरासत में जो भी कुछ है वो सब इसी दहर के लिए है

ग़ुलाम हुसैन साजिद

मिरी सुब्ह-ए-ख़्वाब के शहर पर यही इक जवाज़ है जब्र का

ग़ुलाम हुसैन साजिद

मिरे नज्म-ए-ख़्वाब के रू-ब-रू कोई शय नहीं मिरे ढंग की

ग़ुलाम हुसैन साजिद

मता-ए-बर्ग-ओ-समर वही है शबाहत-ए-रंग-ओ-बू वही है

ग़ुलाम हुसैन साजिद

मसाफ़त-ए-उम्र में ज़ियाँ का हिसाब होता है जुस्तुजू से

ग़ुलाम हुसैन साजिद

मैं अपने सूरज के साथ ज़िंदा रहूँगा तो ये ख़बर मिलेगी

ग़ुलाम हुसैन साजिद

कोई जब छीन लेता है मता-ए-सब्र मिट्टी से

ग़ुलाम हुसैन साजिद

ख़ुदा-ए-बर्तर ने आसमाँ को ज़मीन पर मेहरबाँ किया है

ग़ुलाम हुसैन साजिद

चराग़-ए-ख़ाना-ए-दिल को सुपुर्द-ए-बाद कर दूँ

ग़ुलाम हुसैन साजिद

अगर ये रंगीनी-ए-जहाँ का वजूद है अक्स-ए-आसमाँ से

ग़ुलाम हुसैन साजिद

आइना-आसा ये ख़्वाब-ए-नीलमीं रक्खूँगा मैं

ग़ुलाम हुसैन साजिद

मिरे मुद्दआ-ए-उल्फ़त का पयाम बन के आई

ग़ुबार भट्टी

ज़मीं के साथ फ़लक के सफ़र में हम भी हैं

ग़यास मतीन

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