दास्ताँ Poetry (page 4)

दिया है दर्द तो रंग-ए-क़ुबूल दे ऐसा

सिराज लखनवी

ये इंक़लाब भी ऐ दौर-ए-आसमाँ हो जाए

सिराज लखनवी

वो ज़कात-ए-दौलत-ए-सब्र भी मिरे चंद अश्कों के नाम से

सिराज लखनवी

क्या दास्ताँ थी पहले बयाँ ही नहीं हुई

सिराज अजमली

तू हर्फ़-ए-आख़िरी मिरा क़िस्सा तमाम है

सिदरा सहर इमरान

बस एक बूँद थी औराक़-ए-जाँ में फैल गई

सिद्दीक़ मुजीबी

तंग आ गए हैं कश्मकश-ए-आशियाँ से हम

बाबू सि द्दीक़ निज़ामी

वो जिस के दिल में निहाँ दर्द दो-जहाँ का था

शोला हस्पानवी

वो और होंगे जो वहम-ओ-गुमाँ के साथ चले

शोला हस्पानवी

राज़-ए-फ़ितरत निहाँ था निहाँ है अभी

शोला हस्पानवी

लबों पे अब कोई आह-ओ-फ़ुग़ाँ नहीं होती

शोला हस्पानवी

नसब ये है कि वो दुश्मन को कम-नसब न कहे

शहपर रसूल

फ़साने यूँ तो मोहब्बत के सच हैं पर कुछ कुछ

मुस्तफ़ा ख़ाँ शेफ़्ता

फ़साने अपनी मोहब्बत के सच हैं पर कुछ कुछ

मुस्तफ़ा ख़ाँ शेफ़्ता

जो कू-ए-दोस्त को जाऊँ तो पासबाँ के लिए

मुस्तफ़ा ख़ाँ शेफ़्ता

नई बज़्म-ए-ऐश-ओ-नशात में ये मरज़ सुना है कि आम है

शौक़ बहराइची

ऐ हम-सफ़ीर तलख़ी-ए-तर्ज़-ए-बयाँ न छोड़

शौक़ बहराइची

तराना-ए-उर्दू

शातिर हकीमी

मिरे ए'तिमाद को ग़म मिला मिरी जब किसी पे नज़र गई

शम्स फ़र्रुख़ाबादी

मंज़िल-ए-इश्क़ के राहबर खो गए

शम्स फ़र्रुख़ाबादी

याद की सुब्ह ढल गई शौक़ की शाम हो गई

शमीम करहानी

गुलों पे साया-ए-ग़म-हा-ए-रोज़गार मिले

शमीम करहानी

ज़मीं पे रह के दिमाग़ आसमाँ से मिलता है

शमीम जयपुरी

साहिल पे लाई और सफ़ीने डुबो दिए

शमीम जयपुरी

ज़ेर-ए-ज़मीं दबी हुई ख़ाक को आसाँ कहो

शमीम हनफ़ी

दिलों के माबैन शक की दीवार हो रही है

शकील जमाली

ये सिलसिला ग़मों का न जाने कहाँ से है

शकील ग्वालिआरी

सरगुज़िश्त-ए-दिल को रूदाद-ए-जहाँ समझा था मैं

शकील बदायुनी

नज़र से क़ैद-ए-तअय्युन उठाई जाती है

शकील बदायुनी

समझ सको तो ये तिश्ना-लबी समुंदर है

शकेब जलाली

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