देख Poetry (page 51)

मिरी गिरफ़्त में है ताएर-ए-ख़याल मिरा

ग़ुलाम मुर्तज़ा राही

बढ़ा जब उस की तवज्जोह का सिलसिला कुछ और

ग़ुलाम मुर्तज़ा राही

पैदल हमें जो देख के कतराते थे कभी

ग़ुलाम मोहम्मद वामिक़

मुझ को ग़रीब और क़रज़-दार देख कर

ग़ुलाम मोहम्मद वामिक़

यूँ तो सदा-ए-ज़ख़्म बड़ी दूर तक गई

ग़ुलाम मोहम्मद क़ासिर

गलियों की उदासी पूछती है घर का सन्नाटा कहता है

ग़ुलाम मोहम्मद क़ासिर

तू देख तो उधर कि जो देखा न जाए फिर

ग़ुलाम मौला क़लक़

जबीन-ए-पारसा को देख कर ईमाँ लरज़ता है

ग़ुलाम मौला क़लक़

तेरे वादे का इख़्तिताम नहीं

ग़ुलाम मौला क़लक़

रिश्ता-ए-रस्म-ए-मोहब्बत मत तोड़

ग़ुलाम मौला क़लक़

ख़ुद देख ख़ुदी को ओ ख़ुद-आरा

ग़ुलाम मौला क़लक़

नहीं आसाँ किसी के वास्ते तख़्मीना मेरा

ग़ुलाम हुसैन साजिद

जहाँ भर में मिरे दिल सा कोई घर हो नहीं सकता

ग़ुलाम हुसैन साजिद

आइने में अक्स खिलता है गुल-ए-हैरत नहीं

ग़ुलाम हुसैन साजिद

क़ल्ब-ओ-नज़र के सिलसिले मेरी निगाह में रहे

गाैस मथरावी

न होते शाद आईन-ए-गुलिस्ताँ देखने वाले

ग़ौस मोहम्मद ग़ौसी

मुझ से आज़ुर्दा जो उस गुल-रू को अब पाते हैं लोग

ग़मगीन देहलवी

जबीन-ए-शौक़ पे गर्द-ए-मलाल चाहती है

ग़ालिब अयाज़

हुस्न के ज़ेर-ए-बार हो कि न हो

ग़ालिब अयाज़

वा-हसरता कि यार ने खींचा सितम से हाथ

ग़ालिब

साबित हुआ है गर्दन-ए-मीना पे ख़ून-ए-ख़ल्क़

ग़ालिब

मोहब्बत में नहीं है फ़र्क़ जीने और मरने का

ग़ालिब

क्यूँ जल गया न ताब-ए-रुख़-ए-यार देख कर

ग़ालिब

कोई वीरानी सी वीरानी है

ग़ालिब

इन आबलों से पाँव के घबरा गया था मैं

ग़ालिब

गिरनी थी हम पे बर्क़-ए-तजल्ली न तूर पर

ग़ालिब

आईना देख अपना सा मुँह ले के रह गए

ग़ालिब

ये न थी हमारी क़िस्मत कि विसाल-ए-यार होता

ग़ालिब

वुसअत-ए-सई-ए-करम देख कि सर-ता-सर-ए-ख़ाक

ग़ालिब

वाँ उस को हौल-ए-दिल है तो याँ मैं हूँ शर्म-सार

ग़ालिब

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