धूप Poetry (page 14)

आँखें ज़मीन और फ़लक दस्तकार हैं

सरफ़राज़ आरिश

टूट के पत्थर गिरते रहते हैं दिन रात चटानों से

सरफ़राज़ आमिर

नूर की शाख़ से टूटा हुआ पत्ता हूँ मैं

सरदार सलीम

दिन-ब-दिन सफ़्हा-ए-हस्ती से मिटा जाता हूँ

सरदार सलीम

सुना है धूप को घर लौटने की जल्दी है

सदार आसिफ़

ये ख़ल्क़ सारी हवा मेरे नाम कर देगी

सदार आसिफ़

लाख समझाया मगर ज़िद पे अड़ी है अब भी

सदार आसिफ़

चराग़ जब मेरा कमरा नापता है

सारा शगुफ़्ता

सफ़र की धूप में चेहरे सुनहरे कर लिए हम ने

साक़ी फ़ारुक़ी

रेत की सूरत जाँ प्यासी थी आँख हमारी नम न हुई

साक़ी फ़ारुक़ी

पाँव मारा था पहाड़ों पे तो पानी निकला

साक़ी फ़ारुक़ी

मौत ने पर्दा करते करते पर्दा छोड़ दिया

साक़ी फ़ारुक़ी

जान प्यारी थी मगर जान से बे-ज़ारी थी

साक़ी फ़ारुक़ी

बदन चुराते हुए रूह में समाया कर

साक़ी फ़ारुक़ी

आसेब-सिफ़त ये मिरी तन्हाई अजब है

समीना राजा

आहटों से दिमाग़ जलता है

समद अंसारी

चश्म-ए-नम पहले शफ़क़ बन के सँवरना चाहे

सलमा शाहीन

यक़ीं की धूप में साया भी कुछ गुमान का है

सलीम सिद्दीक़ी

इक दरीचे की तमन्ना मुझे दूभर हुई है

सलीम सिद्दीक़ी

रास्ता चाहिए दरिया की फ़रावानी को

सलीम शाहिद

मेरे एहसास की रग रग में समाने वाले

सलीम शाहिद

खुलती है गुफ़्तुगू से गिरह पेच-ओ-ताब की

सलीम शाहिद

है आरज़ू कि अपना सरापा दिखाई दे

सलीम शाहिद

बुझ गए शो'ले धुआँ आँखों को पानी दे गया

सलीम शाहिद

तू ने ग़म ख़्वाह-मख़ाह उस का उठाया हुआ है

सलीम सरफ़राज़

तू दरिया है और ठहरने वाला मैं

सलीम मुहीउद्दीन

दश्त की धूप भर गया मुझ में

सलीम मुहीउद्दीन

आईनों से धूल मिटाने आते हैं

सलीम मुहीउद्दीन

मोहलत न मिली ख़्वाब की ताबीर उठाते

सलीम कौसर

हर-चंद मिरा शौक़-ए-सफ़र यूँ न रहेगा

सलीम फ़राज़

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