धूप Poetry (page 2)

झुलसती धूप में मुझ को जला के मारेगा

ज़ुबैर क़ैसर

क़ुर्बतों के ये सिलसिले भी हैं

ज़िया शबनमी

तू किसी सुब्ह सी आँगन में उतर आती है

ज़िया-उल-मुस्तफ़ा तुर्क

अब्र से और धूप से रिश्ता है एक सा मिरा

ज़िया-उल-मुस्तफ़ा तुर्क

सूरज निकलने शाम के ढलने में आ रहूँ

ज़िया-उल-मुस्तफ़ा तुर्क

रिफ़ाक़त की ये ख़्वाहिश कह रही है

ज़िया-उल-मुस्तफ़ा तुर्क

फिर उसी धुन में उसी ध्यान में आ जाता हूँ

ज़िया-उल-मुस्तफ़ा तुर्क

कितने ही फ़ैसले किए पर कहाँ रुक सका हूँ मैं

ज़िया-उल-मुस्तफ़ा तुर्क

दिल के ज़ख़्मों पे वो मरहम जो लगाना चाहे

ज़ियाउल हक़ क़ासमी

दर्द की धूप ढले ग़म के ज़माने जाएँ

ज़िया ज़मीर

ये तो हाथों की लकीरों में था गिर्दाब कोई

ज़िया ज़मीर

दर्द की धूप ढले ग़म के ज़माने जाएँ

ज़िया ज़मीर

वो शाख़ बने-सँवरे वो शाख़ फले-फूले

ज़िया जालंधरी

देख फूलों से लदे धूप नहाए हुए पेड़

ज़िया जालंधरी

कसक

ज़िया जालंधरी

उफ़्ताद तबीअत से इस हाल को हम पहुँचे

ज़िया जालंधरी

ख़ून के दरिया बह जाते हैं ख़ैर और ख़ैर के बीच

ज़िया जालंधरी

ख़ुद को समझा है फ़क़त वहम-ओ-गुमाँ भी हम ने

ज़िया जालंधरी

हम लोग जो ख़ाक छानते हैं

ज़ेहरा निगाह

शिकस्त-ए-आरज़ू

ज़ेहरा अलवी

सीढ़ियाँ..... एक मामूली मुकालिमा

ज़ीशान साहिल

नज़्म

ज़ीशान साहिल

नज़्म

ज़ीशान साहिल

मोहब्बत के रास्ते में

ज़ीशान साहिल

महमूद दरवेश के लिए ख़त

ज़ीशान साहिल

ख़त

ज़ीशान साहिल

कहीं बारिश हो चुकी है

ज़ीशान साहिल

जवाहर-लाल यूनवर्सिटी के तलबा के लिए

ज़ीशान साहिल

इंडिया

ज़ीशान साहिल

फ़ुट-पाथ के लोग

ज़ीशान साहिल

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