सुना है धूप को घर लौटने की जल्दी है
वो आज वक़्त से पहले ही शाम कर देगी
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आता रहा हूँ याद मैं उस को तमाम उम्र
मैं तुझ से झुक के मिला हूँ मगर ये ध्यान रहे
ग़ज़ल कहने में यूँ तो कोई दुश्वारी नहीं होती
ये लफ़्ज़ लफ़्ज़ शोला-बयानी उसी की है
ख़ता उस की मुआफ़ी से बड़ी है
ये बात सच है कि वो ज़िंदगी नहीं मेरी
ये झूट है कि बिछड़ने का उस को ग़म भी नहीं
लफ़्ज़ों का ये ख़ज़ाना तिरे नाम कब हुआ
हो लेने दो बारिश हम भी रो लेंगे
ये कैसे मरहले में फँस गया है मेरा घर मालिक