आता रहा हूँ याद मैं उस को तमाम उम्र
इस ज़ाविए से इश्क़ में नाकाम कब हुआ
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ये कैसे मरहले में फँस गया है मेरा घर मालिक
आसमाँ तू ने छुपा रक्खा है सूरज को कहाँ
मैं ख़ुद को देखूँ अगर दूसरे की आँखों से
हमारी काविश-ए-शेर-ओ-सुख़न बे-कार जाती है
मैं तुझ से झुक के मिला हूँ मगर ये ध्यान रहे
ख़त हो कोई किताब हो या दिल का ज़ख़्म हो
कोई शिकवा नहीं हम को किसी से
ये बात सच है कि वो ज़िंदगी नहीं मेरी
ग़ज़ल कहने में यूँ तो कोई दुश्वारी नहीं होती
हो लेने दो बारिश हम भी रो लेंगे
मैं जिन को ढूँडने निकला था गहरे ग़ारों में
ये झूट है कि बिछड़ने का उस को ग़म भी नहीं