कोई शिकवा नहीं हम को किसी से
ख़ुद अपनी ज़ात हम को छल रही है
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ये बात सच है कि वो ज़िंदगी नहीं मेरी
ख़ता उस की मुआफ़ी से बड़ी है
सुना है धूप को घर लौटने की जल्दी है
हो लेने दो बारिश हम भी रो लेंगे
ग़ज़ल कहने में यूँ तो कोई दुश्वारी नहीं होती
ये लफ़्ज़ लफ़्ज़ शोला-बयानी उसी की है
ये कैसे मरहले में फँस गया है मेरा घर मालिक
आता रहा हूँ याद मैं उस को तमाम उम्र