ग़ज़ल कहने में यूँ तो कोई दुश्वारी नहीं होती
मगर इक मसअला ये है कि मेयारी नहीं होती
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हो लेने दो बारिश हम भी रो लेंगे
हमारी काविश-ए-शेर-ओ-सुख़न बे-कार जाती है
ये झूट है कि बिछड़ने का उस को ग़म भी नहीं
मैं तुझ से झुक के मिला हूँ मगर ये ध्यान रहे
कोई शिकवा नहीं हम को किसी से
मैं ख़ुद को देखूँ अगर दूसरे की आँखों से
ये बात सच है कि वो ज़िंदगी नहीं मेरी
सुना है धूप को घर लौटने की जल्दी है
ख़ता उस की मुआफ़ी से बड़ी है
ये कैसे मरहले में फँस गया है मेरा घर मालिक
ख़त हो कोई किताब हो या दिल का ज़ख़्म हो