मैं तुझ से झुक के मिला हूँ मगर ये ध्यान रहे
बड़ा नहीं हूँ मगर तुझ से क़द में कम भी नहीं
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आसमाँ तू ने छुपा रक्खा है सूरज को कहाँ
ये बात सच है कि वो ज़िंदगी नहीं मेरी
सुना है धूप को घर लौटने की जल्दी है
आता रहा हूँ याद मैं उस को तमाम उम्र
ये कैसे मरहले में फँस गया है मेरा घर मालिक
कोई शिकवा नहीं हम को किसी से
ग़ज़ल कहने में यूँ तो कोई दुश्वारी नहीं होती
मैं जिन को ढूँडने निकला था गहरे ग़ारों में
मैं ख़ुद को देखूँ अगर दूसरे की आँखों से
हमारी काविश-ए-शेर-ओ-सुख़न बे-कार जाती है