मैं ख़ुद को देखूँ अगर दूसरे की आँखों से
मिलेंगी ख़ामियाँ अपने ही शाह-कारों में
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हो लेने दो बारिश हम भी रो लेंगे
मैं तुझ से झुक के मिला हूँ मगर ये ध्यान रहे
आता रहा हूँ याद मैं उस को तमाम उम्र
ये ख़ल्क़ सारी हवा मेरे नाम कर देगी
मैं जिन को ढूँडने निकला था गहरे ग़ारों में
ग़ज़ल कहने में यूँ तो कोई दुश्वारी नहीं होती
ये लफ़्ज़ लफ़्ज़ शोला-बयानी उसी की है
ये कैसे मरहले में फँस गया है मेरा घर मालिक
ख़ता उस की मुआफ़ी से बड़ी है