ख़ता उस की मुआफ़ी से बड़ी है
मैं क्या करता सज़ा देनी पड़ी है
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ग़ज़ल कहने में यूँ तो कोई दुश्वारी नहीं होती
सुना है धूप को घर लौटने की जल्दी है
न जाने कैसी आँधी चल रही है
कोई शिकवा नहीं हम को किसी से
मैं जिन को ढूँडने निकला था गहरे ग़ारों में
ख़त हो कोई किताब हो या दिल का ज़ख़्म हो
लफ़्ज़ों का ये ख़ज़ाना तिरे नाम कब हुआ
हो लेने दो बारिश हम भी रो लेंगे
हमारी काविश-ए-शेर-ओ-सुख़न बे-कार जाती है
ये कैसे मरहले में फँस गया है मेरा घर मालिक
मैं तुझ से झुक के मिला हूँ मगर ये ध्यान रहे