ये कैसे मरहले में फँस गया है मेरा घर मालिक
अगर छत को बचा भी लूँ तो फिर दीवार जाती है
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आसमाँ तू ने छुपा रक्खा है सूरज को कहाँ
मैं तुझ से झुक के मिला हूँ मगर ये ध्यान रहे
ख़ता उस की मुआफ़ी से बड़ी है
आता रहा हूँ याद मैं उस को तमाम उम्र
मैं ख़ुद को देखूँ अगर दूसरे की आँखों से
ये बात सच है कि वो ज़िंदगी नहीं मेरी
ख़त हो कोई किताब हो या दिल का ज़ख़्म हो
कोई शिकवा नहीं हम को किसी से
मैं जिन को ढूँडने निकला था गहरे ग़ारों में
सुना है धूप को घर लौटने की जल्दी है
ये झूट है कि बिछड़ने का उस को ग़म भी नहीं