शोक Poetry (page 2)

तख़्लीक़

फ़ैसल हाश्मी

मुर्ग़-ए-मरहूम

असद जाफ़री

अलाव

बलराज कोमल

ज़ाबता

हबीब जालिब

नूर अँधेरे की फ़सीलों पे सजा देता हूँ

लोग सब क़ीमती पोशाक पहन कर पहुँचे

बात बह जाने की सुन कर अश्क बरहम हो गए

ले के दिल कहते हो उल्फ़त क्या है

बहार बन के जब से वो मिरे जहाँ पे छाए हैं

न मेरा नाम मेरा है

शहर-ए-आलाम का शहरयार आ गया

किस तवक़्क़ो' पे शरीक-ए-ग़म-ए-याराँ होंगे

फ़ुग़ाँ के साथ तिरे राहत-ए-क़रार चले

सर्द आहों ने मिरे ज़ख़्मों को आबाद किया

किस के नग़्मे गूँजते हैं ज़िंदगी के साज़ में

जज़्बा-ए-दर्द-ए-मुहब्बत ने अगर साथ दिया

पुराने रंग में अश्क-ए-ग़म ताज़ा मिलाता हूँ

ज़ुल्फ़िकार नक़वी

मेरे ग़म की तल्ख़ियों का इस से कुछ अंदाज़ा कर

ज़ुल्फ़िक़ार अली बुख़ारी

ज़िंदगी आज़ार थी आज़ार है तेरे बग़ैर

ज़ुल्फ़िक़ार अली बुख़ारी

ज़िंदगी आज़ार थी आज़ार है तेरे बग़ैर

ज़ुल्फ़िक़ार अली बुख़ारी

वो कहते हैं कि हम को उस के मरने पर तअ'ज्जुब है

ज़ुल्फ़िक़ार अली बुख़ारी

फिर सर-ए-दार-ए-वफ़ा रस्म ये डाली जाए

ज़ुहूर-उल-इस्लाम जावेद

कभी जब्र-ओ-सितम के रू-ब-रू सर ख़म नहीं होता

ज़ुहूर-उल-इस्लाम जावेद

ज़ुल्म तो ये है कि शाकी मिरे किरदार का है

ज़ुहूर नज़र

सहरा में घटा का मुंतज़िर हूँ

ज़ुहूर नज़र

रक्खा नहीं ग़ुर्बत ने किसी इक का भरम भी

ज़ुहूर नज़र

इश्क़ में मारके बला के रहे

ज़ुहूर नज़र

हयात वक़्फ़-ए-ग़म-ए-रोज़गार क्यूँ करते

ज़ुहूर नज़र

हयात वक़्फ़-ए-ग़म-ए-रोज़गार क्यूँ करते

ज़ुहूर नज़र

हर घड़ी क़यामत थी ये न पूछ कब गुज़री

ज़ुहूर नज़र

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