मेरे ग़म की तल्ख़ियों का इस से कुछ अंदाज़ा कर
मुझ को मय-नोशी से भी इंकार है तेरे बग़ैर
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बेश-तर ख़ुदा पाया और बरमला पाया
ज़िंदगी आज़ार थी आज़ार है तेरे बग़ैर
गुम-कर्दा-राह ख़ाक-बसर हूँ ज़रा ठहर
जिस राह से उठा हूँ वहीं बैठ जाऊँगा
रास आने लगी थी तन्हाई
बसाई मैं ने जो क़ल्ब-ए-हज़ीं में
आता है नज़र अंजाम कि साक़ी रात गुज़रने वाली है
वो कहते हैं कि हम को उस के मरने पर तअ'ज्जुब है