जंगल Poetry (page 7)

घर

साक़ी फ़ारुक़ी

हैं सेहर-ए-मुसव्विर में क़यामत नहीं करते

साक़ी फ़ारुक़ी

हम रूह-ए-काएनात हैं नक़्श-ए-असास हैं

समद अंसारी

मैं वो आँसू कि जो माला में पिरोया जाए

सलीम शाहिद

जी में आता है कि इक रोज़ ये मंज़र देखें

सलीम बेताब

आ के अब जंगल में ये उक़्दा खुला

सलीम अहमद

आज तो नहीं मिलता ओर-छोर दरिया का

सलीम अहमद

आ के अब जंगल में ये उक़्दा खुला

सलीम अहमद

तसलसुल

सलाम मछली शहरी

चैत

सलाहुद्दीन परवेज़

घर में साक़ी-ए-मस्त के चल के

सख़ी लख़नवी

दम-ए-यार ता-नज़'अ भर लीजिए

सख़ी लख़नवी

क़ज़ा का वक़्त रुख़्सत की घड़ी है

सैफ़ुद्दीन सैफ़

लोग औरत को फ़क़त जिस्म समझ लेते हैं

साहिर लुधियानवी

दीवारों का जंगल जिस का आबादी है नाम

साहिर लुधियानवी

तेरे महल में कैसे बसर हो इस की तो गीराई बहुत है

साहिर होशियारपुरी

शेर गुफा से निकलेगा

साहिल अहमद

नक़्श डरेगा जंगल में

साहिल अहमद

सदा अपनी रविश अहल-ए-ज़माना याद रखते हैं

सहर अंसारी

वो हक़ीक़त में एक लम्हा था

सग़ीर मलाल

नग़्मे हवा ने छेड़े फ़ितरत की बाँसुरी में

साग़र निज़ामी

दिल्ली की लड़कियाँ

साग़र ख़य्यामी

एक दरख़्त की दहशत

सईदुद्दीन

इतना तो हुआ ऐ दिल इक शख़्स के जाने से

सईद राही

इब्तिदा मुझ में इंतिहा मुझ में

सईद नक़वी

आग थी ऐसी कि अरमाँ जल गए

सदफ़ जाफ़री

उस जंगल से जब गुज़रोगे तो एक शिवाला आएगा

साबिर वसीम

मिरे ध्यान में है इक महल कहीं चौबारों का

साबिर वसीम

देखो ऐसा अजब मुसाफ़िर फिर कब लौट के आता है

साबिर वसीम

वीरान ख़्वाहिश

रियाज़ लतीफ़

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