काम Poetry (page 34)

दिल से तिरी निगाह जिगर तक उतर गई

ग़ालिब

दिल ही तो है न संग-ओ-ख़िश्त दर्द से भर न आए क्यूँ

ग़ालिब

दर्द से मेरे है तुझ को बे-क़रारी हाए हाए

ग़ालिब

बज़्म-ए-शाहंशाह में अशआर का दफ़्तर खुला

ग़ालिब

बाज़ीचा-ए-अतफ़ाल है दुनिया मिरे आगे

ग़ालिब

बस-कि दुश्वार है हर काम का आसाँ होना

ग़ालिब

आह को चाहिए इक उम्र असर होते तक

ग़ालिब

इक नज़र ने किया है काम तमाम

जोर्ज पेश शोर

इक साया-ए-शाम याद आया

गौहर होशियारपुरी

बंदों का मिज़ाज हम ने देखा

गौहर होशियारपुरी

हो गए यार पराए अपने

फ़ीरोज़ा ख़ुसरो

इसी खंडर में कहीं कुछ दिए हैं टूटे हुए

फ़िराक़ गोरखपुरी

देवताओं का ख़ुदा से होगा काम

फ़िराक़ गोरखपुरी

शाम-ए-अयादत

फ़िराक़ गोरखपुरी

जुदाई

फ़िराक़ गोरखपुरी

हिण्डोला

फ़िराक़ गोरखपुरी

आधी रात

फ़िराक़ गोरखपुरी

ज़ेर-ओ-बम से साज़-ए-ख़िलक़त के जहाँ बनता गया

फ़िराक़ गोरखपुरी

तुम्हें क्यूँकर बताएँ ज़िंदगी को क्या समझते हैं

फ़िराक़ गोरखपुरी

तेज़ एहसास-ए-ख़ुदी दरकार है

फ़िराक़ गोरखपुरी

कुछ न कुछ इश्क़ की तासीर का इक़रार तो है

फ़िराक़ गोरखपुरी

कोई पैग़ाम-ए-मोहब्बत लब-ए-एजाज़ तो दे

फ़िराक़ गोरखपुरी

किसी का यूँ तो हुआ कौन उम्र भर फिर भी

फ़िराक़ गोरखपुरी

जिसे लोग कहते हैं तीरगी वही शब हिजाब-ए-सहर भी है

फ़िराक़ गोरखपुरी

जौर-ओ-बे-मेहरी-ए-इग़्माज़ पे क्या रोता है

फ़िराक़ गोरखपुरी

हर नाला तिरे दर्द से अब और ही कुछ है

फ़िराक़ गोरखपुरी

इक रोज़ हुए थे कुछ इशारात ख़फ़ी से

फ़िराक़ गोरखपुरी

दौर-ए-आग़ाज़-ए-जफ़ा दिल का सहारा निकला

फ़िराक़ गोरखपुरी

बस्तियाँ ढूँढ रही हैं उन्हें वीरानों में

फ़िराक़ गोरखपुरी

किस काम का ऐसा दिल जिस में रंजिश है ग़ुबार है कीना है

फ़िगार उन्नावी

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