काम Poetry (page 35)
कुछ काम तो आया दिल-ए-नाकाम हमारा
फ़िगार उन्नावी
हदीस-ए-सोज़-ओ-साज़-ए-शम्-ओ-परवाना नहीं कहते
फ़िगार उन्नावी
तिरी जुस्तुजू में देखा मैं कहाँ कहाँ से गुज़रा
फ़िगार मुरादाबादी
एक नज़्म
फ़ज़्ल ताबिश
ख़्वाहिशों के हिसार से निकलो
फ़ज़्ल ताबिश
आँखों का तो काम ही है रोना
फ़ज़्ल अहमद करीम फ़ज़ली
ज़िंदगी हो तो कई काम निकल आते हैं
फ़ाज़िल जमीली
मिलने का भी आख़िर कोई इम्कान बनाते
फ़ाज़िल जमीली
मैं जिस जगह हूँ वहाँ बूद-ओ-बाश किस की है
फ़ाज़िल जमीली
ख़्वाब में देख रहा हूँ कि हक़ीक़त में उसे
फ़ाज़िल जमीली
ख़ाक में मुझ को मिरी जान मिला रक्खा है
फ़ज़ल हुसैन साबिर
लहू ही कितना है जो चश्म-ए-तर से निकलेगा
फ़ज़ा इब्न-ए-फ़ैज़ी
ग़ज़ल के पर्दे में बे-पर्दा ख़्वाहिशें लिखना
फ़ज़ा इब्न-ए-फ़ैज़ी
अलमिया-ए-नक़्द
फ़े सीन एजाज़
दिल ओ नज़र की बक़ा है फ़क़त मोहब्बत में
फ़व्वाद अहमद
हमारे दिल की बजा दी है उस ने ईंट से ईंट
फ़व्वाद अहमद
कौन ख़्वाहिश करे कि और जिए
फ़ातिमा हसन
कहो तो नाम मैं दे दूँ इसे मोहब्बत का
फ़ातिमा हसन
मुद्दत से वो ख़ुशबू-ए-हिना ही नहीं आई
फ़सीह अकमल
था अबस ख़ौफ़ कि आसेब-ए-गुमाँ मैं ही था
फ़र्रुख़ जाफ़री
उजड़े नगर में शाम कभी कर लिया करें
फ़ारूक़ शफ़क़
ये गर्द-ए-राह ये माहौल ये धुआँ जैसे
फ़ारूक़ मुज़्तर
उजले माथे पे नाम लिख रक्खें
फ़ारूक़ मुज़्तर
शहर-ए-दोस्त
फ़ारूक़ बख़्शी
न-जाने कितने लहजे और कितने रंग बदलेगा
फ़ारूक़ अंजुम
मैं शो'ला-ए-इज़हार हूँ कोताह हूँ क़द तक
फ़ारिग़ बुख़ारी
हमें सलीक़ा न आया जहाँ में जीने का
फ़ारिग़ बुख़ारी
दो झुकी आँखों का पहुँचा जब मिरे दिल को सलाम
फ़रहत शहज़ाद
हाल में जीने की तदबीर भी हो सकती है
फ़रहत नदीम हुमायूँ
औरतें काम पे निकली थीं बदन घर रख कर
फ़रहत एहसास
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