आँखों का तो काम ही है रोना
ये गिर्या-ए-बे-सबब है प्यारे
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हमारे उन के तअल्लुक़ का अब ये आलम है
ज़िंदगी साज़-ए-शिकस्ता की फ़ुग़ाँ ही तो नहीं
अहल-ए-हुनर के दिल में धड़कते हैं सब के दिल
तुम्हीं इक नहीं जाँ-सेताँ और भी हैं
नक़ाब उन ने रुख़ से उठाई तो लेकिन
ग़म-ए-दौराँ में कहाँ बात ग़म-ए-जानाँ की
अस्बाब-ए-ज़िंदगी की हर इक चीज़ है गराँ
फ़रेब-ए-करम इक तो उन का है इस पर
कुछ तो मुझे महबूब तिरा ग़म भी बहुत है
बहार आई गुल-अफ़्शानी के दिन हैं
ग़मों से खेलते रहना कोई हँसी भी नहीं