नक़ाब उन ने रुख़ से उठाई तो लेकिन
हिजाबात कुछ दरमियाँ और भी हैं
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बहार आई गुल-अफ़्शानी के दिन हैं
तुम्हीं इक नहीं जाँ-सेताँ और भी हैं
तामीर-ए-नौ क़ज़ा-ओ-क़दर की नज़र में है
अब वो महकी हुई सी रात नहीं
आँखों का तो काम ही है रोना
ग़म-ए-दौराँ में कहाँ बात ग़म-ए-जानाँ की
फ़रेब-ए-करम इक तो उन का है इस पर
है सख़्त मुश्किल में जान साक़ी पिलाए आख़िर किधर से पहले
अस्बाब-ए-ज़िंदगी की हर इक चीज़ है गराँ
हमारे उन के तअल्लुक़ का अब ये आलम है
अहल-ए-हुनर के दिल में धड़कते हैं सब के दिल