इक नज़र ने किया है काम तमाम
आरज़ू भी तो थी यही दिल की
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शौक़ ने की जो रहबरी दिल की
पैक-ए-ख़याल भी है अजब क्या जहाँ-नुमा
दूर हम से हैं वो तो क्या डर है
देते न दिल जो तुम को तो क्यूँ बनती जान पर
इसी ख़याल में दिन-रात मैं तड़पता हूँ
जान पर अपनी हाए क्यूँ बनती
ज़र्रे की तरह ख़ाक में पामाल हो गए
उस माह-रू पे आँख किसी की न पड़ सकी
गुज़िश्ता साल जो देखा वो अब की साल नहीं
का'बे में तो सिद्क़ और सफ़ा को पाया
इक ख़याल-ओ-ख़्वाब है ए 'शोर' ये बज़्म-ए-जहाँ