दूर हम से हैं वो तो क्या डर है
पास है अपने आरसी दिल की
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ये फ़र्क़ जीते ही जी तक गदा-ओ-शाह में है
शौक़ ने की जो रहबरी दिल की
नहीं है टूटे की बूटी जहान में पैदा
का'बे में तो सिद्क़ और सफ़ा को पाया
है तलाश-ए-दो-जहाँ लेकिन ख़बर अपनी किसे
इसी ख़याल में दिन-रात मैं तड़पता हूँ
रुके है आमद-ओ-शुद में नफ़स नहीं चलता
पैक-ए-ख़याल भी है अजब क्या जहाँ-नुमा
क्या वस्फ़ लिखूँ ज़ुल्फ़-ए-सियह की लट का
अदम से हस्ती में जब हम आए न कोई हमदर्द साथ लाए
पीरी में ख़ाक ज़िंदगानी का मज़ा