इसी ख़याल में दिन-रात मैं तड़पता हूँ
तुम्हीं क़रार भी दोगे जो बे-क़रार किया
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तुम्हारे इश्क़ में क्या क्या न इख़्तियार किया
ये फ़र्क़ जीते ही जी तक गदा-ओ-शाह में है
देते न दिल जो तुम को तो क्यूँ बनती जान पर
क्या वस्फ़ लिखूँ ज़ुल्फ़-ए-सियह की लट का
जब तक है शबाब-ए-साज़गार-ए-दौलत
पीरी में ख़ाक ज़िंदगानी का मज़ा
गिरजा में गए तो पारसाई देखी
इक नज़र ने किया है काम तमाम
शौक़ ने की जो रहबरी दिल की
है तलाश-ए-दो-जहाँ लेकिन ख़बर अपनी किसे
गुज़िश्ता साल जो देखा वो अब की साल नहीं